Skip to content

Latest commit

 

History

History
249 lines (150 loc) · 10.1 KB

collection-101-to-150.md

File metadata and controls

249 lines (150 loc) · 10.1 KB

संत कबीर जी के दोहे — 101 to 150

सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय।।१०१।।


बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव।।१०२।।


आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय।।१०३।।


साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय।।१०४।।


घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार।।१०५।।


कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय।।१०६।।


ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय।।१०७।।


सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार।।१०८।।


सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल।।१०९।।


जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख।।११०।।


सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और।।१११।।


यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो।।११२।।


जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार।।११३।।


जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।११४।।


जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार।।११५।।


कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार।।११६।।


लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय।।११७।।


एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार।
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार।।११८।।


जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास।।११९।।


साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय।।१२०।।


अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान।।१२१।।


खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह।।१२२।।


लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत।।१२३।।


सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह।।१२४।।


भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग।।१२५।।


गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव।।१२६।।


प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय।।१२७।।


कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह।।१२८।।


साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं।।१२९।।


केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह।।१३०।।


एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय।
एक से परचे भया, एक मोह समाय।।१३१।।


साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध।।१३२।।


हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप।।१३३।।


आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत।।१३४।।


आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय।।१३५।।


अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट।।१३६।।


अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान।।१३७।।


आस पराई राखता, खाया घर का खेत।
औरन को पथ बोधता, मुख में डारे रेत।।१३८।।


आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक।।१३९।।


आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद।।१४०।।


उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय।।१४१।।


उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय।।१४२।।


अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय।।१४३।।


एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार।।१४४।।


ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय।।१४५।।


कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय।।१४६।।


एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय।।१४७।।


कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय।।१४८।।


कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय।।१४९।।


कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय।।१५०।।