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संत कबीर जी के दोहे — 151 to 200

कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय।।१५१।।


को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय।।१५२।।


कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान।।१५३।।


काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं।।१५४।।


काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ।।१५५।।


काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय।।१५६।।


कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय।।१५७।।


कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार।।१५८।।


कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय।।१५९।।


कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय।।१६०।।


कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर।।१६१।।


कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह।।१६२।।


करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।।१६३।।


कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं।।१६४।।


कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार।
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार।।१६५।।


कागा काको घन हरे, कोयल काको देय।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय।।१६६।।


कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर।।१६७।।


कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि।
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि।।१६८।।


कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ।।१६९।।


कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय।।१७०।।


कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव।
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय।।१७१।।


कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय।।१७२।।


केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह।।१७३।।


कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार।।१७४।।


कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय।।१७५।।


गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह।।१७६।।


खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह।।१७७।।


चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार।
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार।।१७८।।


घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल।।१७९।।


गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच।।१८०।।


चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय।।१८१।।


जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि।।१८२।।


जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव।।१८३।।


जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल।।१८४।।


जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान।।१८५।।


ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि।।१८६।।


जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप।।१८७।।


जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग।।१८८।।


जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।१८९।।


जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार।।१९०।।


जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय।।१९१।।


झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।।१९२।।


जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास।।१९३।।


जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार।।१९४।।


ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत।।१९५।।


तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय।।१९६।।


तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय।।१९७।।


तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर।
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर।।१९८।।


दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार।।१९९।।


दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन।
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन।।२००।।