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संत कबीर जी के दोहे — 351 to 400

कबीर माला मन की, और संसारी भेष।
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि।।३५१।।


माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ।
मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ।।३५२।।


कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार।
मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार।।३५३।।


माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ।
माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ।।३५४।।


बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक।।३५५।।


स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि।।३५६।।


चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात।
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ।।३५७।।


एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार।
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार।।३५८।।


कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस।।३५९।।


सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात।।३६०।।


गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह।
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह।।३६१।।


निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह।।३६२।।


जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ।।३६३।।


काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि।
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख।।३६४।।


राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई।
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई।।३६५।।


पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ।।३६६।।


फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई।।३६७।।


हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि।
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि।।३६८।।


जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं।।३६९।।


कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास।
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास।।३७०।।


क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान।
वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम।।३७१।।


काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।।३७२।।


दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि।
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि।।३७३।।


कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि।।३७४।।


कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ।।३७५।।


भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग।।३७६।।


रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ।
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ।।३७७।।


कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ।।३७८।।


मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि।।३७९।।


मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह।
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह।।३८०।।


संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ।
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ।।३८१।।


कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत।।३८२।।


कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज।।३८३।।


जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद।।३८४।।


अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर।
सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर।।३८५।।


कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार।।३८६।।


कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ।।३८७।।


सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि।।३८८।।


जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ।।३८९।।


आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ।।३९०।।


जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ।
मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ।।३९१।।


कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर।
तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर।।३९२।।


रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान।
ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान।।३९३।।


कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास।
कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास।।३९४।।


अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ।
अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ।।३९५।।


जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई।
दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ।।३९६।।


साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार।
बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार।।३९७।।


झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार।
आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार।।३९८।।


एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ।।३९९।।


कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार।
तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार।।४००।।