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संत कबीर जी के दोहे — 401 to 450

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार।
दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार।।४०१।।


कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि।
बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि।।४०२।।


बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत।
तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत।।४०३।।


पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि।
जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि।।४०४।।


निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय।
बिन पाणी बिन सबुना, निरमल करै सुभाय।।४०५।।


गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि।
डरता पाणी जा पीऊं, मति वै धोये जाहि।।४०६।।


जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ।।४०७।।


सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ।
पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ।।४०८।।


खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ।
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ।।४०९।।


नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि।
जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि।।४१०।।


कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित न कोइ।
गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ।।४११।।


हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ।
ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ।।४१२।।


सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं।
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं।।४१३।।


क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि।
तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि।।४१४।।


सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार।
पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार।।४१५।।


गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान।
बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान।।४१६।।


गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम।
कीट न जाने भृगं को, गुरु करले आप समान।।४१७।।


कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय।।४१८।।


गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त।।४१९।।


गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय।।४२०।।


जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर।।४२१।।


गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान।।४२२।।


गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।४२३।।


गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं।।४२४।।


लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय।
शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय।।४२५।।


गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर।।४२६।।


गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कन्त।।४२७।।


गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष।।४२८।।


गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं।
उन्हीं कूँ परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं।।४२९।।


गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और।
सुख सम्पति की कह चली, नहीं परक ये ठौर।।४३०।।


सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान।
शब्द सहै सम्मुख रहै, निपजै शीष सुजान।।४३१।।


ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास।।४३२।।


अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान।
ताको जम न्योता दिया, होउ हमार मेहमान।।४३३।।


जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय।।४३४।।


मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।।४३५।।


पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम।।४३६।।


सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम।।४३७।।


कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव।।४३८।।


कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार।
तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार।।४३९।।


तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ।।४४०।।


तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान।
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम।।४४१।।


जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि।
शीष भाव सुत्त जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि।।४४२।।


भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि।
गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि।।४४३।।


करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय।
बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय।।४४४।।


सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय।
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय।।४४५।।


अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल।
अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल।।४४६।।


लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय।
कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय।।४४७।।


राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट।
कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट।।४४८।।


साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय।
जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय।।४४९।।


सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय।।४५०।।