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संत कबीर जी के दोहे — 451 to 500

सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज।
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज।।४५१।।


सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड।।४५२।।


सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय।।४५३।।


सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय।
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय।।४५४।।


जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव।।४५५।।


मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर।।४५६।।


सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय।
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय।।४५७।।


जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान।।४५८।।


कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय।
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय।।४५९।।


बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे।
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै।।४६०।।


केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय।।४६१।।


डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय।
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ।।४६२।।


सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु।
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु।।४६३।।


करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है।
होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू।।४६४।।


यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत।।४६५।।


जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे।
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै।।४६६।।


जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन।
अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन।।४६७।।


जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द।।४६८।।


गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव।।४६९।।


आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय।
दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय।।४७०।।


गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि।।४७१।।


पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख।
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख।।४७२।।


कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल।
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल।।४७३।।


गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव।
सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव।।४७४।।


जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय।।४७५।।


झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार।
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार।।४७६।।


सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं।
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि।।४७७।।


कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार।
पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार।।४७८।।


जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय।
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए।।४७९।।


सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय।
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय।।४८०।।


गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश।
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास।।४८१।।


गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय।
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय।।४८२।।


गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह।
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह।।४८३।।


गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास।
अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस।।४८४।।


जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय।
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय।।४८५।।


गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप।।४८६।।


यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान।।४८७।।


बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय।
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय।।४८८।।


गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग।
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग।।४८९।।


गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर।।४९०।।


कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला।।४९१।।


शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध।।४९२।।


हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय।
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय।।४९३।।


ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक।
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक।।४९४।।


शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय।
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय।।४९५।।


स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय।।४९६।।


गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि।।४९७।।


सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय।
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय।।४९८।।


देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल।
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल।।४९९।।


कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।५००।।