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संत कबीर जी के दोहे — 601 to 650

ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर।।६०१।।


आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं।।६०२।।


जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि।।६०३।।


कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं।।६०४।।


सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर।।६०५।।


सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय।।६०६।।


संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।६०७।।


मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त।।६०८।।


दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव।
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव।।६०९।।


सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त।।६१०।।


आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान।
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान।।६११।।


आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर।
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर।।६१२।।


यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय।।६१३।।


कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस।
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश।।६१४।।


साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह।।६१५।।


साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय।।६१६।।


सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर।।६१७।।


आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच।
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच।।६१८।।


साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब।।६१९।।


सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय।।६२०।।


हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय।
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय।।६२१।।


साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग।।६२२।।


सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग।।६२३।।


चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस।।६२४।।


बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल।।६२५।।


साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार।।६२६।।


तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय।।६२७।।


जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार।।६२८।।


शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव।।६२९।।


गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द।।६३०।।


पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय।
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय।।६३१।।


गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख।।६३२।।


मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग।।६३३।।


भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान।।६३४।।


कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट।
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट।।६३५।।


बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम।
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम।।६३६।।


फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल।
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल।।६३७।।


बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार।
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार।।६३८।।


धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग।।६३९।।


घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग।
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग।।६४०।।


उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष।
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष।।६४१।।


अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख।।६४२।।


माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं।।६४३।।


माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख।
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख।।६४४।।


उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर।
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर।।६४५।।


आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह।।६४६।।


सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि।।६४७।।


अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय।।६४८।।


अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष।।६४९।।


कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय।
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय।।६५०।।