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संत कबीर जी के दोहे — 651 to 700

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध।।६५१।।


कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय।।६५२।।


मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग।।६५३।।


साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह।
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह।।६५४।।


साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग।
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग।।६५५।।


साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय।
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय।।६५६।।


गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार।
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार।।६५७।।


संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय।।६५८।।


भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय।
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय।।६५९।।


तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल।
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल।।६६०।।


काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान।
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान।।६६१।।


कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव।
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत।।६६२।।


मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय।
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय।।६६३।।


ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट।
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट।।६६४।।


साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह।
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह।।६६५।।


ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय।
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए।।६६६।।


जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय।
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय।।६६७।।


दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय।
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय।।६६८।।


जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय।
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय।।६६९।।


प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय।
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय।।६७०।।


कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय।
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय।।६७१।।


सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात।
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात।।६७२।।


तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज।
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज।।६७३।।


मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट।।६७४।।


लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति।
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति।।६७५।।


साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग।।६७६।।


संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग।।६७७।।


तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल।।६७८।।


साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय।।६७९।।


संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत।।६८०।।


चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय।
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय।।६८१।।


सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग।
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग।।६८२।।


सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय।
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय।।६८३।।


तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय।
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय।।६८४।।


सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय।।६८५।।


अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय।।६८६।।


यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय।।६८७।।


गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल।।६८८।।


आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल।।६८९।।


द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय।।६९०।।


उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख।।६९१।।


कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर।।६९२।।


गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय।।६९३।।


गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग।।६९४।।


यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग।।६९५।।


ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत।।६९६।।


दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान।।६९७।।


शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय।।६९८।।


कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त।।६९९।।


कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय।।७००।।