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संत कबीर जी के दोहे — 701 to 750

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग।।७०१।।


गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास।।७०२।।


लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़।।७०३।।


काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय।।७०४।।


दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास।।७०५।।


दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन।।७०६।।


दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास।।७०७।।


भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय।।७०८।।


भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त।।७०९।।


भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय।।७१०।।


भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय।
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय।।७११।।


भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम।।७१२।।


भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय।।७१३।।


भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश।।७१४।।


कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज।।७१५।।


भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय।।७१६।।


भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय।
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय।।७१७।।


भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय।
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय।।७१८।।


गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार।।७१९।।


भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव।।७२०।।


कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास।
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास।।७२१।।


कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार।।७२२।।


जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय।।७२३।।


देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग।
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग।।७२४।।


आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय।
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय।।७२५।।


जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव।।७२६।।


पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत।
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत।।७२७।।


निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान।
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान।।७२८।।


तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान।
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान।।७२९।।


खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर।।७३०।।


ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय।।७३१।।


भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट।।७३२।।


भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव।।७३३।।


भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय।।७३४।।


और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म।।७३५।।


विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान।।७३६।।


भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय।।७३७।।


भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव।।७३८।।


कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़।।७३९।।


कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास।।७४०।।


कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास।।७४१।।


कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस।।७४२।।


कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल।।७४३।।


कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह।।७४४।।


कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान।
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान।।७४५।।


कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय।
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय।।७४६।।


कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़।
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़।।७४७।।


कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव।
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव।।७४८।।


कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल।
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल।।७४९।।


कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि।
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि।।७५०।।