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संत कबीर जी के दोहे — 751 to 800

कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल।।७५१।।


कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन।
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन।।७५२।।


कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार।
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार।।७५३।।


कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन।
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन।।७५४।।


कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए।
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए।।७५५।।


कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय।
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय।।७५६।।


कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार।
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार।।७५७।।


एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह।
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय।।७५८।।


ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि।
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि।।७५९।।


मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम।
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम।।७६०।।


कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय।।७६१।।


कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक।
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक।।७६२।।


कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत।
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत।।७६३।।


हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास।।७६४।।


आज काल के बीच में, जंगल होगा वास।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास।।७६५।।


ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार।
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार।।७६६।।


पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज।।७६७।।


आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत।
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत।।७६८।।


आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल।।७६९।।


कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय।।७७०।।


सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग।
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग।।७७१।।


ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय।
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय।।७७२।।


ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय।।७७३।।


ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल।
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज।।७७४।।


पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय।।७७५।।


मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन।
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन।।७७६।।


घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत।
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत।।७७७।।


हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान।।७७८।।


पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान।।७७९।।


पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम।
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम।।७८०।।


कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि।।७८१।।


यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ।
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ।।७८२।।


कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय।
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय।।७८३।।


जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि।
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि।।७८४।।


कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय।
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय।।७८५।।


दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि।।७८६।।


दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग।।७८७।।


यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास।
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस।।७८८।।


यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय।।७८९।।


जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय।
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय।।७९०।।


मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान।
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान।।७९१।।


महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय।
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय।।७९२।।


ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय।
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय।।७९३।।


कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम।।७९४।।


कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय।
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय।।७९५।।


मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस।।७९६।।


ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर।
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर।।७९७।।


इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ।
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट।।७९८।।


जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र।
जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त।।७९९।।


मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय।
मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय।।८००।।